24 April, 2013

जिंदगी की सीमाये




उस वक़्त मै बाहरवी की परीक्षा के बाद उदयपुर मे RPET के लिए crash course कर रहा था। वहा पर एक टीचर थे जो हमे गणित पढ़ाते थे। एक दिन बातों ही बातों मे वो इंजीन्यरिंग की पढ़ाई के बारे मे बताने लगे। फ़र्स्ट इयर मे लगता है की चीफ़ इंजीनियर बनेगे, सेकंड इयर मे लगता है की असिस्टेंट इंजीनियर बनेगे, थर्ड इयर आते आते सच्चाई का अंदेशा होने लगता है लेकिन फिर भी लगता है जूनियर इंजीनियर तो बन ही जाएगे, फ़ाइनल इयर मे आकर जब कूए से बाहर झाकते है तो यह डर लगने लगता है की कही पर जॉब भी लगेगी या नहीं। अपनी बात को पूरा करते हुए उनके चेहरे पर निराशा और हार के भाव साफ दिखाई दे रहे थे। वो फिर से पढ़ने लग गए, निश्चित रूप से वो मजबूरी मे ही पढा रहे थे।

लगभग 4-5 साल बाद GATE की तैयारी शुरू करने से लेकर रिज़ल्ट तक, मेरे साथ वही सब हुआ। शुरुवात मे लग रहा था की आईआईटी से कम मे एड्मिशन नहीं लूगा, फिर exam देने के बाद NIT से कम नहीं और रिज़ल्ट आने के बाद “कोई भी अच्छा कॉलेज मिल जाए तो सही रहेगा”। मैंने थोड़ी मेहनत तो जरूर की थी लेकिन फिर भी वह सब नहीं हुए जो मै चाहता था और आखिरकार मुझे भी परिस्थितियो के आगे आत्मसमर्पण करना ही पड़ा।

 मंदिरो, पीर, मज़ारों पर मन्नत मांगते लोगो को देखकर यही लगता है की जिंदगी मे बहुत कुछ है जो अभी भी इंसान के बस मे नहीं है। इंसान की ज़िंदगी को कोई ओर है जो चला रहा है। हम तो सिर्फ कठपुतली है जिसे एक अदृश्य सी डोर नियंत्रित कर रही है जिसे कुछ लोग किस्मत कहते है। या फिर उस बादल की तरह जिसकी किस्मत हवा का रुख तय करती है। तो क्या जिंदगी की कुछ सीमाए है जिनसे बाहर इंसान कुछ नहीं कर सकता है, अपने आप को किस्मत के भरोसे छोड़ने के अलावा। अगर लोगो द्वारा मांगे जाने वाली मन्नतों पर गौर किया जाए तो वो सिर्फ खुद या आसपास के लोगो की खुशी से संबन्धित होती है। अक्सर उम्मीदों के पूरा ना होने पर, इंसान को जिंदगी की सीमाओ का अहसास होता है। जिंदगी की सीमाये, उम्मीदों और वास्तविकताओ के बीच का अंतर मात्र है। उम्मीदो की सीमा का कभी अंत नहीं होता, उम्मीदों के पूरा होने पर वो ओर बढ़ती जाती है। जबकि वास्तविकता देखने के नजरिये पर निर्भर करती है।

 लेकिन क्या होगा अगर इंसान उम्मीदे करना ही बंद कर दे तो फिर उसकी जिंदगी की कोई सीमा नज़र ही नहीं आएगी या उसका एहसास नहीं होगा। गीता मे भी भगवान श्रीक़ृष्ण ने ऐसा ही कुछ कहा है -

 सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
 ततो युद्धाय युज्यस्व नैवे पापम्वाप्स्यसी। ।

 [ तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किया बिना युद्ध(कर्म) करने के लिए युद्ध(कर्म) करो। ऐसा करने पर तुम्हें पाप नहीं लगेगा। ]
      




22 April, 2013

Newton's Law of Human Nature


Isaac Newton


Curiosity of man led to the several scientific discoveries, theorems and rules. Some spiritual people believe that only god is responsible for all things while some people believe only in science. Remaining believe that one day both kind of people (mentioned in previous line) will come to same conclusion. These kinds of people generally find the relation between science and religion. Oskar Grunewald’s book Science and religion: Missing link describes the relation between science and religion; and also describes what we are missing to understand between them.
In 1687, Isaac Newton gave famous three laws of Motion in first edition of his book Principia Mathematica Philosophiae Naturalis (Latin for Mathematical Principles of Natural Philosophy)  often referred as Principia. Unlike Aristotle’s laws, these laws are universal and applicable on falling stone to a planet. I thought if these laws are universal than why these are confine to Physics only and than in eureka moment I found that Newton’s law are also applicable on human nature….but how? Here it is..

Newton’s first Law:
 “Man/woman doing certain action or no action will do same unless there is any external obligation or inspiration.”
(Before the declaration of examination time table, most of students never start their studies. Sleeping, facebook, movies and all other things like this were their priority. But obligation to pass examinations changes their actions and they start to study. People don’t get up early in the morning until there is obligation to go school, college, office etc. People who got inspiration from book, story or person also try to change their action. People won’t change themselves easily; any obligation or inspiration is always required. )

Newton’s second law:
Internal (f)orce to achieve something is equal to product of (m)ind’s ability and (a)cceleration of related thoughts in mind i.e. F=ma”

Newton’s third law:
“For every action a man/woman does for another person, there is equal and opposite expectation.”


03 April, 2013

इंतज़ार-ऐ-भगतसिंह





उन्हे शिकायत है अपने कॉलेज से जो की सही वक़्त पर परीक्षा परिणाम तक नहीं दे सकता। दूसरे कॉलेजो के दोस्तो को कंपनियो के ऑफर लेटरो के साथ अक्कड़ बक्कड़ खेलते हुए देख रहा है वो लेकिन खुद एक ऑफर लेटर के लिए रो रहा है। दिन मे कई बार अपने Resume को देख कर उसमे कमिया खोज रहा है। ऐसी क्या कमी है मुझमे और मेरे दूसरे प्लेस्ड दोस्तो मे, सिर्फ कॉलेज का नाम ही तो अलग है। लेकिन उसमे मेरी क्या गलती है, मैंने तो पूरी मेहनत की थी अपने कॉलेज मे, यहा तक की ज्यादा ही की थी। क्या क्या सपने देखे थे, लेकिन यहा तो रिज़ल्ट ही नहीं है अब तक हाथ मे। मन तो उसका करता है की कल की पहली ट्रेन से कॉलेज पहुच कर, रिज़ल्ट लेकर ही वापस लौटे। कम से कम एक ई-मेल तो ऐसा कर दे, जिसमे पूछ ले वो सब, जो मन मे है उसके, या फिर फोन करके ही पूछ ले। लेकिन कभी उसकी हिम्मत नहीं होती। डर लगता है उसे, जब दूसरे चुप है तो मै क्यो बोलू। मै क्यो बनू बलि का बकरा, सबका काम तो हो जाएगा और मै मारा जाऊगा। वो नहीं चाहता की उसके ग्रेड कम हो और सर से रिलेशन खराब हो। कभी कभी मन ही मन मे वो बहुत कुछ प्लान करता है लेकिन सुबह उठकर सोचता है की कुछ दिन बाद करता हूँ, हो सकता है की तब तक सब कुछ ठीक हो जाये। और फिर कुछ दिन बाद वो पुराना प्लान भूल जाता है। वो फिर से नया प्लान बनाता है। अपने दोस्तो के सामने शेर सा दहाड़ता कर अपना गुस्सा शांत करता है और जब बोलने की बारी आती है तो बनावटी मुस्कान के साथ ज्यादा कुछ बोलता नहीं है।

ये उसके साथ पहली बार नहीं हुआ है, पिछली बार रोड मे गढ़ढ़े देखकर भी उसका मन हुआ था की कम से कम शिकायत तो ही कर दे। लेकिन बाद का सोच कर उसने अपने आप को टाल दिया था उस दिन। कई बार सरकारी हॉस्पिटल मे गंदगी देखकर भी, एक बार भी शिकायत नहीं करता है वो क्योकि उसे डर है रिलेशन खराब होने का और उसे तो पहले से पता है की कुछ नहीं होने वाला। कोशिश करके भी क्या फायदा। वो हमेशा फायदा और नुकसान के तराजू मे बैठकर कर खुद को तोलता है। हालाकी सरकारी नौकरी का विज्ञापन देखकर वो एक बार कोशिश जरूर करता है, जबकि उसे पता है की आरक्षण की आग मे उसका आवेदन-पत्र जल जाएगा। लेकिन फिर भी वो सोचता है की एक बार कोशिश करने मे क्या हर्ज़ है।

वो चुपचाप सब कुछ देख रहा है।
उसको इंतज़ार है एक भगतसिंह का,
जो आएगा और नयी शुरुवात करेगा
जो आयेगा और अपना बलिदान देगा,

और
जिसकी चिता की राख़ को दिखाकर,
वो अपना हक़ मागेगा।

क्या आपको भी है इंतज़ार–ए-भगतसिंह...?