उस वक़्त मै बाहरवी की परीक्षा के बाद उदयपुर मे RPET के लिए crash course कर रहा था। वहा पर एक टीचर थे जो हमे गणित पढ़ाते थे। एक दिन बातों ही बातों मे वो इंजीन्यरिंग की पढ़ाई के बारे मे बताने लगे। फ़र्स्ट इयर मे लगता है की चीफ़ इंजीनियर बनेगे, सेकंड इयर मे लगता है की असिस्टेंट इंजीनियर बनेगे, थर्ड इयर आते आते सच्चाई का अंदेशा होने लगता है लेकिन फिर भी लगता है जूनियर इंजीनियर तो बन ही जाएगे, फ़ाइनल इयर मे आकर जब कूए से बाहर झाकते है तो यह डर लगने लगता है की कही पर जॉब भी लगेगी या नहीं। अपनी बात को पूरा करते हुए उनके चेहरे पर निराशा और हार के भाव साफ दिखाई दे रहे थे। वो फिर से पढ़ने लग गए, निश्चित रूप से वो मजबूरी मे ही पढा रहे थे।
लगभग 4-5 साल बाद GATE की तैयारी शुरू करने से लेकर रिज़ल्ट तक, मेरे साथ वही सब हुआ। शुरुवात मे लग रहा था की आईआईटी से कम मे एड्मिशन नहीं लूगा, फिर exam देने के बाद NIT से कम नहीं और रिज़ल्ट आने के बाद “कोई भी अच्छा कॉलेज मिल जाए तो सही रहेगा”। मैंने थोड़ी मेहनत तो जरूर की थी लेकिन फिर भी वह सब नहीं हुए जो मै चाहता था और आखिरकार मुझे भी परिस्थितियो के आगे आत्मसमर्पण करना ही पड़ा।
मंदिरो, पीर, मज़ारों पर मन्नत मांगते लोगो को देखकर यही लगता है की जिंदगी मे बहुत कुछ है जो अभी भी इंसान के बस मे नहीं है। इंसान की ज़िंदगी को कोई ओर है जो चला रहा है। हम तो सिर्फ कठपुतली है जिसे एक अदृश्य सी डोर नियंत्रित कर रही है जिसे कुछ लोग किस्मत कहते है। या फिर उस बादल की तरह जिसकी किस्मत हवा का रुख तय करती है। तो क्या जिंदगी की कुछ सीमाए है जिनसे बाहर इंसान कुछ नहीं कर सकता है, अपने आप को किस्मत के भरोसे छोड़ने के अलावा। अगर लोगो द्वारा मांगे जाने वाली मन्नतों पर गौर किया जाए तो वो सिर्फ खुद या आसपास के लोगो की खुशी से संबन्धित होती है। अक्सर उम्मीदों के पूरा ना होने पर, इंसान को जिंदगी की सीमाओ का अहसास होता है। जिंदगी की सीमाये, उम्मीदों और वास्तविकताओ के बीच का अंतर मात्र है। उम्मीदो की सीमा का कभी अंत नहीं होता, उम्मीदों के पूरा होने पर वो ओर बढ़ती जाती है। जबकि वास्तविकता देखने के नजरिये पर निर्भर करती है।
लेकिन क्या होगा अगर इंसान उम्मीदे करना ही बंद कर दे तो फिर उसकी जिंदगी की कोई सीमा नज़र ही नहीं आएगी या उसका एहसास नहीं होगा। गीता मे भी भगवान श्रीक़ृष्ण ने ऐसा ही कुछ कहा है -
सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवे पापम्वाप्स्यसी। ।
[ तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किया बिना युद्ध(कर्म) करने के लिए युद्ध(कर्म) करो। ऐसा करने पर तुम्हें पाप नहीं लगेगा। ]
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